“योजना नहीं, ये खेल है”: बनारस में प्रोजेक्ट बदलने की राजनीति और कमीशनखोरी का मकड़जाल := शैलेन्द्र सिंह, वरिष्ठ पत्रकार
वाराणसी (काशी)
संक्षिप्त परिचय:
बनारस — जहाँ हर मोड़ पर इतिहास है, हर गली में संस्कृति। लेकिन अब यही काशी ‘विकास योजनाओं के खेल’ का मैदान बन चुकी है।
यहाँ योजनाएं शुरू होती हैं, बंद हो जाती हैं, और फिर नई योजनाओं का नाटक शुरू होता है।
नतीजा — जनता ठगी जाती है, और सिस्टम के भीतर कमीशनखोरी की परतें और मोटी होती जाती हैं।
प्रमुख बिंदु:
हर साल बदलती योजनाएं, लेकिन परिणाम वही — अधूरापन।
पुरानी योजनाओं को बंद करके, उनके नाम, बजट और टेंडर बदल दिए जाते हैं।
जनता का भरोसा टूटा, रोजगार के अवसर खत्म हुए।
यह सब नीतिगत सुधार नहीं, बल्कि कमीशन आधारित पुनरावृत्ति का खेल है।
बनारस का विकास अब योजना-केन्द्रित नहीं, लाभ-केन्द्रित बन गया है।
बनारस में बंद की गई कुछ चर्चित योजनाएं:
योजना का नाम उद्देश्य वर्तमान स्थिति
नाइट मार्केट छोटे व्यापार को बढ़ावा बंद, व्यापारियों को नुकसान
स्मार्ट सड़कें ट्रैफिक सुगमता अधूरी, फिर से री-टेंडर
बुनकर सुविधा केंद्र कारीगरों का सशक्तिकरण बंद, नई योजना प्रस्तावित
ठेला बाजार रोज़गार के अवसर बंद, स्थान खाली
पुरानी पार्किंग योजनाएं ट्रैफिक समाधान खत्म, नई योजना लंबित
मैदान से रिपोर्ट:
> राकेश यादव (व्यापारी, गोदौलिया):
“हमने नाइट मार्केट में दुकान शुरू की थी। लाखों खर्च हुए, अब सब बर्बाद। कोई जवाब नहीं दे रहा।”
शबाना बेगम (बुनकर, लोहता):
“पुराने केंद्र में हम सिखते थे, अब नया खुला भी नहीं, पुराना चला भी गया। ये विकास नहीं, धोखा है।”
कैसे काम करता है ‘योजना बदलो और जेब भरो’ मॉडल:
1. पुरानी योजना को ‘अप्रभावी’ बताओ।
2. नई योजना लाओ – वही उद्देश्य, नया बजट।
3. नया टेंडर, नए ठेकेदार।
4. ऊपर से नीचे तक हिस्सेदारी तय।
5. काम अधूरा छोड़ो और फिर नई योजना लाओ।
> कहावत: “पुराना बंद करो, नया पास करो — और फिर बंटवारा करो।”
जनता के सवाल:
क्या ये योजनाएं जनता के लिए बनती हैं या चुने हुए ठेकेदारों के लिए?
क्या बनारस जैसे वीआईपी क्षेत्र में कोई निगरानी तंत्र नहीं है?
क्या हम केवल कागज़ी फाइलों और बजट प्रस्तावों का शहर बनकर रह जाएंगे?
प्रभाव: रोजगार और विश्वास की हानि
क्षेत्र प्रभाव
रोजगार हजारों अस्थायी और छोटे व्यवसाय प्रभावित
विश्वास जनता का भरोसा योजनाओं और सरकार पर कम हुआ
आजीविका छोटे दुकानदार, ठेला चालक, बुनकर सबसे ज़्यादा प्रभावित
विश्लेषण: विकास नहीं, अनिश्चितता का मॉडल
जब हर दो साल में योजनाएं बदलती हैं, तो उसे विकास नहीं कहा जा सकता। यह एक ‘शोषण-आधारित मॉडल’ है, जो फाइलों में तो चमकता है, लेकिन ज़मीन पर असफल रहता है।
बिंदु
बनारस में योजनाओं का संकट नहीं है — नीयत का संकट है।
अगर योजनाएं जनता की सेवा के लिए न बनें, बल्कि कमीशन के लिए बनाई जाएं, तो विकास कभी स्थायी नहीं हो सकता।
> बनारस को अब योजना नहीं, भरोसा चाहिए।
विकास का मतलब सिर्फ बजट पास करना नहीं, ज़मीन पर असर दिखाना है।
जब एक योजना चले, पूरी हो, और जनता को लाभ दे — तभी असली विकास कहलाएगा।
रेफरेंस और संपर्क:
रिपोर्टर: शैलेन्द्र सिंह
वरिष्ठ पत्रकार | पूर्व उपाध्यक्ष, छावनी परिषद वाराणसी
8953028448
