July 13, 2025 3:40 pm

Home » Uncategorized » *व्यवस्था की पोल खोलती ठगी: जब रक्षक ही बन जाए भक्षक*

*व्यवस्था की पोल खोलती ठगी: जब रक्षक ही बन जाए भक्षक*

*व्यवस्था की पोल खोलती ठगी: जब रक्षक ही बन जाए भक्षक*

*कृष्णा पंडित की कलम से-*

*सरकारी नौकरी दिलाने के नाम पर ठगी का मामला : क्या हमारा तंत्र जवाबदेह है ?*

*क्या है पुलिस कमिश्नर के पीआरओ की सच्चाई*

 

हर साल देशभर में लाखों युवा सरकारी नौकरी का सपना लेकर प्रतियोगी परीक्षाओं की दौड़ में शामिल होते हैं। उनके माता-पिता जीवनभर की कमाई, जेवर और कर्ज तक दांव पर लगाते हैं, सिर्फ इस भरोसे पर कि एक स्थिर और सुरक्षित भविष्य मिलेगा। लेकिन जब व्यवस्था की जिम्मेदारी संभालने वाले ही इस भरोसे का व्यापार करने लगें, तो यह सिर्फ कानून की अवहेलना नहीं, बल्कि सामाजिक न्याय की आत्मा पर गहरी चोट है।

*मैनपुरी की महिला का आरोप: जेवर बेचकर बेटे का सपना, लेकिन मिली ठगी और शोषण*

हाल ही में मैनपुरी की एक महिला ने पुलिस कमिश्नर को पत्र लिखकर चौंकाने वाले आरोप लगाए हैं। आरोप है कि पुलिस कमिश्नर के पीआरओ दीपक रानावत और उनके कथित सहयोगी संदीप ने मिलकर उसे सरकारी नौकरी दिलाने के नाम पर ₹16 लाख की ठगी का शिकार बनाया।

यह रकम महिला ने जेवर बेचकर और ब्याज पर कर्ज लेकर दी थी, केवल इस उम्मीद में कि उसका बेटा एक सरकारी नौकरी पा सकेगा। लेकिन यह सपना उस परिवार के लिए एक दुःस्वप्न बन गया। शिकायत में यह भी उल्लेख है कि महिला का मानसिक और ‘शारीरिक शोषण’ भी किया गया।

*नाम में भी की हेरा फेरी*

दरोगा दीपक राणावत नहीं असली नाम दीपक कुमार है

आजाद अधिकार सेना के राष्ट्रीय अध्यक्ष अमिताभ ठाकुर ने डीजीपी यूपी को पत्र भेज कर पुलिस कमिश्नर वाराणसी के पीआरओ दीपक राणावत से जुड़े आरोपों की उच्च स्तरीय जांच की मांग की है !

उन्होंने कहा कि उन्हें प्राप्त जानकारी के अनुसार प्रयागराज निवासी इस उपनिरीक्षक का असली नाम दीपक कुमार है, जो नियमानुसार अपना नाम परिवर्तित किए बिना ही सोशल मीडिया के साथ पुलिस अभिलेखों में भी मनमाने ढंग से अपना नाम दीपक राणावत लिखते हैं.

अमिताभ ठाकुर ने कहा कि उन्होंने पूर्व में जनवरी 2025 में भी दीपक कुमार पर भ्रष्टाचार से जुड़े कतिपय तथ्य प्रेषित किए गए थे, किंतु वाराणसी पुलिस ने इन आरोपों को रफादफा कर दिया था.

उन्होंने डीजीपी से इन समस्त आरोपों की उच्च स्तरीय जांच कराकर समुचित कार्रवाई की मांग की है. उन्होंने कहा कि संभवत दीपक कुमार का एक वर्ष पूर्व ट्रांसफर हो गया है लेकिन उनकी रवानगी नहीं की जा रही है, ऐसी स्थिति में उनकी तत्काल रवानगी की जाए !

*क्या केवल कुछ लोग दोषी हैं, या पूरा तंत्र सवालों के घेरे में है?*

यह मामला सिर्फ ‘दीपक रानावत’ या ‘संदीप’ की भूमिका तक सीमित नहीं है। बड़ा सवाल यह है कि ऐसे लोग कैसे और क्यों सिस्टम में इतनी ऊँची ज़िम्मेदारियों तक पहुंचते हैं?

जब एक पुलिस कमिश्नर का पीआरओ ही इस तरह की आपराधिक गतिविधियों में लिप्त पाया जाए, तो पूरा संस्थान कठघरे में आता है। और यही वह बिंदु है जहाँ जनता का भरोसा तंत्र से टूटने लगता है।

*जांच की औपचारिकता नहीं, निष्पक्षता और समयबद्ध कार्रवाई चाहिए*
दीपक रानावत ने सभी आरोपों को बेबुनियाद बताया है और कहा है कि उनकी महिला से कभी मुलाकात ही नहीं हुई। वहीं पुलिस कमिश्नर मोहित अग्रवाल ने मामले की जांच एक आईपीएस अधिकारी से कराने की बात कही है, जो स्वागत योग्य है।

लेकिन बड़ा सवाल यह है—क्या यह जांच भी “प्रारंभिक जांच”, “प्रमाण न मिलने” जैसे बहानों में खो जाएगी? अगर ऐसा हुआ, तो यह केवल पीड़िता ही नहीं, पूरी न्याय प्रणाली के लिए हार होगी।

*बंद मोबाइल नंबर और संदिग्ध संदीप: जांच की दिशा तय करेंगे ये सुराग*
पीड़िता द्वारा दिए गए मोबाइल नंबर अब बंद हैं। यह एक गंभीर संकेत है कि कुछ छुपाने की कोशिश की जा रही है। अगर “संदीप” नाम का कोई व्यक्ति वाकई मौजूद है और वह सरकारी नौकरी दिलाने का दावा करता रहा है, तो उसे तुरंत हिरासत में लेकर गहराई से पूछताछ होनी चाहिए।

यह भी जांचा जाना जरूरी है कि क्या यह कोई संगठित गिरोह है, जो युवाओं और उनके परिवारों की मजबूरियों का फायदा उठाकर उन्हें ठग रहा है।

*बेरोजगारी और भ्रष्टाचार: कब तक लुटते रहेंगे सपने?*
यह घटना कई गहरे सवालों को जन्म देती है:

1- क्या सरकारी नौकरी की प्रक्रिया इतनी भ्रष्ट और अपारदर्शी हो चुकी है कि लोग दलालों पर विश्वास करने लगे हैं?

2- क्या हमारी कानून व्यवस्था इतनी कमजोर हो गई है कि एक महिला को वीडियो कॉल्स जैसे निजी सबूत देने पड़ते हैं, और तब भी उसकी बात को ‘बेबुनियाद’ कहकर टाल दिया जाता है?

*संविधान में दर्ज न्याय क्या सिर्फ किताबों तक सीमित है?*
जब एक गरीब महिला अपनी पूरी पूंजी लुटाकर भी न्याय के लिए दर-दर भटकती है, तो यह साफ हो जाता है कि हमें अपने सिस्टम में गहरे और ठोस सुधारों की ज़रूरत है।

हमें एक ऐसा तंत्र चाहिए जिसमें न तो पद, न रुतबा, न राजनीतिक संरक्षण किसी दोषी को बचा सके। और न ही कोई झूठा आरोप किसी निर्दोष की छवि खराब कर सके।

*सख्त सज़ा ही दिला सकती है जनता को भरोसा*
जांच निष्पक्ष और तेज़ होनी चाहिए। अगर आरोप सही पाए जाते हैं, तो दोषियों को सिर्फ ‘निलंबन’, ‘ट्रांसफर’ और ‘लाइन हाजिर’ नहीं, बल्कि कड़ी कानूनी सज़ा दी जानी चाहिए। और यदि आरोप गलत साबित होते हैं, तो झूठे आरोप लगाने के पीछे की मंशा की भी जांच जरूरी है।

*यह सिर्फ एक महिला की नहीं, लाखों पीड़ितों की कहानी है*
यह मामला किसी एक व्यक्ति की शिकायत नहीं, बल्कि उस व्यवस्था का आईना है जिसमें आज भी लाखों लोग ठगे जा रहे हैं। यह लेख एक सीधा सवाल है उस व्यवस्था से, जो खुद को “जनसेवक” कहती है, लेकिन जब अपने ही लोग अपराध में लिप्त पाए जाते हैं, तो चुप्पी साध लेती है।

*अब समय है कि व्यवस्था खुद को बेनकाब करे*
अब वक़्त आ गया है कि प्रशासन खुद आगे आकर यह दिखाए कि कानून अब भी ज़िंदा है, और न्याय अब भी संभव है।

यदि अब भी ऐसे मामलों को नज़रअंदाज़ किया गया, तो जनता का विश्वास हमेशा के लिए टूट जाएगा। क्योंकि-
*एक बार टूटा भरोसा, कभी वापस नहीं आता।*

 

Liveupweb
Author: Liveupweb

Leave a Reply

Your email address will not be published. Required fields are marked *